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संत रविदास

संत रविदास (Sant Ravidas) जो थे एक अद्भुत संत

सतगुरु रविदास (Sant Ravidas) जी उन विशिष्ट महापुरुषों में से एक है, जिन्होंने अपने अलौकिक व आध्यात्मिक वचनों से पूरी दुनिया में आत्मबोध, समानता, बन्धुत्व को प्रोत्साहित किया।

गुरु रविदास जी की उदारता को देखकर कई शासक और बड़े-बड़े सम्राट इनकें आश्रय में आकर भक्ति के पथ (Path of Devotion) से जुड़ गए। इन्होनें आजीवन समाज में फैली कुप्रथाओं को खत्म करने के लिए कार्य किया। सतगुरु रविदास जी के अनुचर इनको “जगतगुरु”, “सतगुरु” आदि नामों से पुकारते हैं।

मीरा भी संत रविदास जी की शिष्या थी वो बचपन से ही रविदास जी के पास जाया करती थी मीरा को भक्ति ज्ञान (Devotional knowledge) की शिक्षा भी संत रविदास ने ही दी मीरा को राम और कृष्ण के बारे में सुनना बहुत पसंद था जो रविदास जी उन्हें सुनाया करते थे

आइये जानते है संत रविदास जी के जीवन के अदभुत पहलु

जीवन

सतगुरु रविदास जी का जन्म काशी नगरी (वर्तमान वाराणसी शहर) उत्तर प्रदेश में संवत 1433 को हुआ। रविदास जी जूते बनाने का काम किया करते थे तथा यह उनका व्यवसाय था। वे अपना कार्य पुरी मेहनत और लगन से करते थे और समय पर अपना कार्य समाप्त कर ध्यान करते थे।

उनके गुरु संत रामानन्द (Sant Ramanand) जी थे। अपने गुरु की शरण में रहकर उन्होंने आध्यात्मिक ज्ञान (Spiritual knowledge) प्राप्त किया। कबीर साहेब के कहने पर गुरु रविदास ने स्वामी रामानंद जी को अपना गुरु बनाया था इसलिए वास्तव में उनके आधात्मिक गुरु कबीर साहेब जी थे। उनकी समय पर काम करने की आदत तथा कोमल स्वभाव जैसे गुणों के कारण उनके सम्पर्क में आने वाले लोग भी हर्षजनक रहते थे।

शुरू से ही रविदास जी दयालु तथा करुणामय थे और उनकी मनोवृत्ति ही ऐसी थी कि वे दुसरो की मदद करते थे। उनके इस स्वभाव के कारण उनके माता-पिता बहुत चिंतित रहते थे। कुछ समय पश्चात उनके घरवालों ने उन्हें और उनकी पत्नी को घर से निकाल दिया। फिर उन्होंने अपने घर के पास ही अपना अलग घर बनाकर अपना काम करने लग गए। जब उन्हें समय मिलता वे ईश्वर-भजन और सत्संग में समय व्यतीत करते थे।

वे भगवान श्री राम व कृष्ण की भक्ति में लीन रहते थे तथा वे उनके महान अनुयायी भी बने और लोगो की सहायता करते करते संत बन गए। इतना ही नहीं दुनियाभर में प्रसिद्धि प्राप्त की।

उनकी एक प्रमुख दोहो है मन चंगा तो कठौती में गंगा
इसका अर्थ है अगर आप का मन आपकी आत्मा आपकी भीतर अवस्था शुद्ध है तो आपको गंगा स्नान की आवश्यकता नहीं है किसी मंदिर की आवश्यकता नहीं सब मंदिर आपके भीतर ही है
अथार्त अगर आप का मन पवित्र है तो गंगा जी आपके भीतर ही है उसके लिए कही जाने की आवश्यकता नहीं है

इसी तरह के उनके अनेक दोहे है जिनमे से कुछ को निचे लिखा गया है

उन्होंने अपने शरीर को 1540 में वाराणसी त्याग दिया।

सतगुरु रविदास जी के दोहे

जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात।
रैदास मनुष ना जुड़ सके जब तक जाति न जात।।

कृस्न, करीम, राम, हरि, राघव, जब लग एक न पेखा।
वेद कतेब कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा।।

कह रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै।
तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक हवै चुनि खावै।।

रैदास कनक और कंगन माहि जिमि अंतर कछु नाहिं ।
ऐसे ही अंतर नहीं हिन्दुअन तुरकन माहि ।।

हिंदू तुरक नहीं कछु भेदा सभी मह एक रक्त और मासा।
दोऊ एकऊ दूजा नाहीं, पेख्यो सोइ रैदासा।।

हरि-सा हीरा छांड कै, करै आन की आस।
ते नर जमपुर जाहिंगे, सत भाषै रविदास।।

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